आखिर में मुझको क्या ही चाहिए था , मुझे जैसे को कोई मुझ जैसा ही चाहिए था। और किसी बेहतर तो मेरी वैसे भी मेरी बनती नहीं है, मुझे तो बस अपने ख्वाबों की बुनी दीवारों में गुजारा चाहिए था। इस आफताब से भी तो छुपा कर रखा था उसे, क्युकी मुझको तो बस जीने का सहारा चाहिए था। और उसके सारे इत्ताहाम, खता, कुसूर, गुरुर, जुल्म सब पर इश्क की चादर डाल कर सो जाता था मैं, क्युकी मुझको तो बस उसके आशियाने पर ठिकाना चाहिए था।
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इन आंखों में अधूरे ख्वाब के मंजर,
सब बंजर पड़े हैं ।और इन ख्वाबों की इक्तिजा तो तेरे इकबाल होने की है,
तू भी इनके गुजरे की कुछ दिलासा दे इन्हे।बगैर तेरे इनका जहां तबाही में तब्दील हो चुका है,
तरस कर और इनको तस्सली की कोई तर्कीब दे इन्हे।और इनकी फरमाइशों को फर्ज समझ तू अपना,
अपने फैसले में ठहरने के लिए घर दे इन्हे।और इनकी हर दुआ अव्वल होगी तेरे लिए,
बस तू इनकी गैरत के लिए चस्म – ओ – चिराग दे इन्हे। -
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